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सैनिक

Saturday, 4 October 2014




किसके हाथों मज़बूर होकर
फैसला लिया थककर
चूर - चूर होकर

हालात ने करवट ऐसी बदली
समंदर का ख्वाब छोड़ो यारों
सरहद भी हुई पार

इरादे नेक थे
मज़बूत थे हम भी
बुलंदियों को हासिल किया

पर

कुछ मज़बूर थे हम भी

क्यों कुछ इस तरह
ज़िंदगी हमसे गुमशुदा हुई

रेत में धूप से
तपन हुई पर चुभी नहीं
कि पैर इतने नर्म नहीं

तो फिर उस मज़बूरी में
ऐसा क्या था
कि ले लिया हम से सब कुछ
और किनारा भी नहीं मिला
चैन से सांस लेने को

था तड़पन से उदास जो चेहरा
वह भी झुलस गया

उस गर्मी का शिकार
दर्द भी बन गया
अश्रु नहीं निकल पाये
वे भी तो सूख गए

ऐसी भी क्या मज़बूरी थी
इतनी भी क्या दूरी थी !

चले तो थे फौलादी बन कर
सीमाएँ तोड़ीं कट्टर बनकर
सब त्यागा फिर कैदी बनकर

तब भागा सैनिक
और लज्जा हुई
मन के अंदर !

जागृत नहीं कर पाया खुद को
दिया वहीँ पर सब कुछ त्याग
प्राणो का बलिदान नहीं वह
डर के मर जाना कहलाया।

अब तो हुआ है
कोई सवेरा
लगता है मन होगा हल्का
जागा सैनिक फिर से मन का
छोड़ दिया मरने का धंधा।

अब तो उठो !
! जागो यारों !
होगा वह जो हम चाहेंगे
बुलंद आवाज़ उठाओ प्यारों
अन्याय का सिर हम काटेंगे।  


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