घरों के नरों के सिर मुड़ चुके हैं
स्त्रियों का विलाप
बच्चों के रोदन का अभिशाप
कुछ कहता है
पर सन्नाटा है।
बेटियों का उजड़ा संसार
बेटे का सिमटता व्यापार
सहते हुए उस पति-घातिन का वियोग
कुछ कहता है
पर सन्नाटा है।
टोकरी में भीगे चने
अंकुरित हो चुके हैं
यह देख खटिया के नीचे बैठी बिल्ली
कुछ कहती है
पर सन्नाटा है।
रात की ठंडी पुरवईया में
ढलते शरीर का एहसास
पहली किरण का इंतज़ार
कुछ कहता है
पर सन्नाटा है।
ओस से भीगे होंठ
नम आँखों को गोंठ
बच्चों के सिर से उस वियोगी का साया हटते हुए
कुछ कहता है
पर सन्नाटा है।
भोर में दोनों की लपटों की गर्मी
लड़कियों के ह्रदय की नर्मी
को खींचकर अपनी ओर
कुछ कहती है
पर सन्नाटा है।
दिन भर लड़कियों की राख
करती रही भाई के कलेजे पर बंधी राखी को खाक
पर जीने की मजबूरी
कुछ कहती है
पर सन्नाटा है।
ढलते सूरज को देख
चादर मुँह पर फेंक
कुछ न सुन पाती हुई इच्छा
कुछ कहती है
पर सन्नाटा है।
No comments:
Post a Comment
Nice to meet you...