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दुनियादारी

Saturday, 4 October 2014




दुनिया में लोग रहते हैं
लोगों में हम रहते हैं
हम, हम में कम रहते हैं
लोगों में ज़्यादा रहते हैं
धरती के इस मेले में
दो - तीन चेहरों के चोले में
रह जाए कहानी अधूरी हमारी
दुनियादारी



भीड़ में सब हँसते हैं
एकांत में हम रोते हैं
सुई जो चुभ गई तो
वन और नदियों की भांति
सिकुड़ते ही जा रहे हैं
सिमटते ही जा रहे हैं
खो जाये सच और झूठ से खेलने की परिपक्वता हमारी
दुनियादारी


भगवान की कठपुतलियों ने
अपने सेवक खड़े किए हैं
कागज़ के महल बनवाए
नोट उन पर छाप दिए हैं
बेईमानी के इस सतयुग में
ईमनदायरी की सिर्फ जाती बची है
बह जाए गंगा में कहीं, बची ये ईमानदारी सारी
दुनियादारी



बगुलाभगत प्रतियोगिता में
परिणामस्वरूप जो आगे खड़े हैं
उनके पंक्तिबद्ध पौधे
बुद्धि और अंक नहीं
नन्ही कोमल पत्तियों के लिए
रिश्वत का माल नाप कर सींचे गए हैं
मालामाल होने के इस गोलमाल जाल में, कहीं डाल बेहाल हो जाये
दुनियादारी


बहुत दुनियादारी सीख चुके हैं
ज़्यादा आगे हम बढ़ चुके हैं
सद्गुण और मानवता सीखें
रंगों से साथ रहना सीखें
सफ़ेद कबूतरों के ज़रिये
प्रभु को भी हम यह कह आएँ
काम आएगी हमारी परवरिश में भी
दुनियादारी

3 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

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  2. Bahut gahree Soch chhupi h inn chand panktiyon mein.
    God bless you ❤

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Nice to meet you...